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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: कश्यपो मारीचः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

इ꣣षे꣡ प꣢वस्व꣣ धा꣡र꣢या मृ꣣ज्य꣡मा꣢नो मनी꣣षि꣡भिः꣢ । इ꣡न्दो꣢ रु꣣चा꣡भि गा इ꣢हि꣢ ॥८४१॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

इषे पवस्व धारया मृज्यमानो मनीषिभिः । इन्दो रुचाभि गा इहि ॥८४१॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ꣣षे꣢ । प꣣वस्व । धा꣡र꣢꣯या । मृ꣣ज्य꣡मा꣢नः । म꣣नीषि꣡भिः꣢ । इ꣡न्दो꣢꣯ । रु꣣चा꣢ । अ꣣भि꣢ । गाः । इ꣣हि ॥८४१॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 841 | (कौथोम) 2 » 2 » 4 » 1 | (रानायाणीय) 4 » 1 » 4 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा का भाष्य पूवार्चिक में क्रमाङ्क ५०५ पर परमात्मा के विषय में किया गया था। यहाँ गुरु-शिष्य का विषय दर्शाया जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) तेजस्वी, विद्या के खजाने आचार्य ! (मनीषिभिः) चिन्तनशील शिष्यों के द्वारा (मृज्यमानः) नमस्कारों से अलङ्कृत किये जाते हुए आप (इषे) इच्छासिद्धि के लिए (धारया) विद्या की धारा से (पवस्व) शिष्यों को पवित्र कीजिए। आप (रुचा) दीप्ति के साथ (गाः अभि) स्तोता शिष्यों के प्रति (इहि) जाइए ॥१॥

भावार्थभाषाः -

शिष्य समर्पण भाव से गुरुओं के प्रति जाएँ और गुरु निश्छल मन से शिष्यों के पास पहुँचकर सब विद्याएँ प्रदान करें ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५०५ क्रमाङ्के परमात्मविषये व्याख्याता। अत्र गुरुशिष्यविषयः प्रदर्श्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (इन्दो) तेजस्विन् विद्यानिधे आचार्य ! त्वम् (मनीषिभिः) चिन्तनशीलैः शिष्यैः (मृज्यमानः) नमोवाग्भिः अलङ्क्रियमाणः सन् (इषे) इच्छासिद्धये (धारया) विद्याधारया (पवस्व) शिष्यान् पुनीहि। त्वम् (रुचा) दीप्त्या सह (गाः अभि) स्तोतॄन् शिष्यान् प्रति (इहि) गच्छ ॥१॥

भावार्थभाषाः -

शिष्याः समर्पणभावेन गुरून् प्रति गच्छन्तु, गुरवश्च निश्छलेन मनसा शिष्यानुपगम्य सकला विद्याः प्रयच्छन्तु ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।६४।१३, साम० ५०५।